Wednesday, July 20, 2016

अना पर बात आती है अगर हो जंग बुज़दिल से।




अना पर बात आती है अगर हो जंग  बुज़दिल से।
खु़दा दुश्मन भी ऐसा दे जो माने हार मुश्किल से।

यहाँ  कोई  नहीं  जो  एक वादे  पर  बिता  दे  उम्र 
यहाँ तो दे  रहे हैं लोग अपना दिल भी बेदिल से।
-माहिर

Monday, December 5, 2011

एक लम्बा अरसा हो गया आपसे कोई गुफ्तगू नहीं हुई. दरअसल कुछ मसरूफियत है. लेकिन अब आपसे वादा करता हूँ आईंदा ऐसी गुस्ताखी नहीं होगी. दोस्तो बहुत दिनों बाद एक मनपसंद ग़ज़ल लिखी है.आइये आपको इससे रु ब रु करवाता हूँ . उम्मीद है पसंद आएगी. 
वो जो गम से, तन्हाई से हाथ मिलाया करते हैं
हम भी अपने दिल में हरदम दर्द को पाला करते हैं

वो जो वाक़िफ है पानी में आग लगाने के फन से,
हम भी यारो पत्थर को शीशे से तोड़ा करते हैं

वो जो उलझन को पल भर में सुलझा कर रख देता है
हम भी अड़ियल चट्टानों से राह निकाला करते हैं

वो जो औरों के भी दर्द को अपना दर्द समझता है
हम भी हर इक रोती आँख के आंसू पोंछा करते हैं

वो जो दहकते अंगारों पर चलने का दम भरता है
हम भी सूरज की आँखों में आँखें डाला करते हैं

वो जो दूध का ढूध और पानी का पानी कर देता है
हम भी हर इक बात को अपनी पलक से तोला करते हैं

वो जो तबस्सुम रखता है फूलों के नाज़ुक़ होटों पर
हम भी बच्चा बन रोते बच्चों को हँसाया करते हैं

वो जो अपने एहसां का एहसास नहीं होने देता
हम भी यारो नेकी कर दरया में डाला करते हैं

वो जो परेशां करता है अंधियारों को शम्मा बन कर
हम भी जुगनू बन बन कर रातों से उलझा करते हैं

वो जो भटके लोगों को उनकी मंजिल दिखलाता है
हम भी राहों में बिखरे काँटों को बीना करते हैं

वो जो अपनी बातों से सबको बस में कर लेता है
हम भी अपने फ़न से यहाँ हर दिल में बसेरा करते हैं

वो जो पत्थर की परतों से आब निकाला करता है
हम भी अंधेरों के सीनों से ज़िया निचोड़ा करते हैं

वो जो ऊँचाई को पाने की चाहत में पागल है
हम भी फलक को बाहों में भरने की सोचा करते हैं

वो जो रस्ता रोका करता है मग़रूर हवाओं का
हम भी ज़िद्दी तूफानों के बाज़ू तोड़ा करते हैं - मुस्तफा माहिर

Sunday, August 14, 2011

इस १५ अगस्त पर देश के हर नौजवान  के लिए मुस्तफा माहिर की ये चंद पंक्तियाँ 

ज़माना झूठ का है सच का दरपन कौन देखेगा .
भले हो साफ़ लेकिन आपका मन कौन देखेगा .
वतन की ज़िम्मेदारी हर किसी को दे नहीं सकते,
हमें अब सोचना होगा कि गुलशन कौन देखेगा

Thursday, July 28, 2011

फ़क़त छोटी सी इक अनबन हुई झगडा निकल आया.

फ़क़त छोटी सी इक अनबन हुई झगडा निकल आया.
क़बीलों का ज़रा सी बात पर शिजरा निकल आया.
ये सब बेकाम की बातें भी कितनी काम की निकलीं,
भले हो दूर का तुमसे मगर रिश्ता निकल आया.
मैं अपनी तिश्नगी को जिस जगह आया था दफनाकर ,
सुना है आजकल मैंने वहा दरया निकल आया.
जुदा होकर तू मुझसे ज़िन्दगी कैसे गुजारेगा,
अभी दो रोज़ बीते हैं तेरा चेहरा निकल आया.
दुआ फिर ज़िन्दगी को मौत के मुंह से बचा लायी,
कि बच्चा फिर गिरा गढ्ढे में औ ' जिंदा निकल आया.
मुझे लगता था दिल है आपका जज़्बात से खाली,
कनस्तर में मगर दो वक़्त का आटा निकल आया.
थे दिन बचपन के जैसे गर्मियों कि छुट्टियां मेरी,
खुला स्कूल तो स्टोर से बस्ता निकल आया.