क्या उसकी राह देखना वो जो गया, गया ।
हमसे न जाने कितनी दफा ये कहा गया।
उकसा गया था कोई सियासत की आंधियां,
उढ़कर किसी की आँख में तिनका चला गया
जिसके लिए थे जाम शाम सारी रौनकें ,
वो ही हमारी बज्म से प्यासा चला गया ।
ऊंचाइयों से अपने तलक हो गए खफा,
हम पंछियों को शाख का भी आसरा गया।
खामोशियों की कर जो रहा था वकालतें,
आंखों को बोलने का सलीका सिखा गया।
12 comments:
स्वागत है, नियमित लिखें.
आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लगा. बहुत स्वागत है आपका. निरंतर लेखन से अब ब्लॉगजगत को समृद्ध करे.
-Sulabh Satrangi ( यादों का इंद्रजाल )
thanks for feedback
kuch aalekh v likha kijiye to achcha lgega .....................
narayan narayan
आओ भाई आओ! स्वागत है! शुरुआत में ही नाज़ुक सी कविता दे दी, आगे क्या विचार है प्यारे?
चिट्ठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. सतत लेखन के लिए शुभकामनाएं.
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Till 30-09-09 लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!
"श्याम हमने तो बहुत चाहा कि रुक कर बरसे,
वो थी बदली जो चली उडके,तो उडती ही गयी।"
बहुत सुन्दर रचना । आभार
चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.
गुलमोहर का फूल
सुन्दर रचना । बधाई । ब्लोग पर स्वागत है ।
बहुत सुन्दर रचना । आभार
चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बहुत सुन्दर रचना । आभार
भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY
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