Friday, December 11, 2009

शहर में आपके




शहर में आपके इतना फकत किरदार मेरा था
वहाँ पर अब उजाला है जहाँ पर बस अँधेरा था

गिरा डाला भला ये पेड़ क्यूँ तुमने मुहब्बत का
हमारी ज़िन्दगी के ये परिंदे का बसेरा था

खुशी की नागिने तो चाहती थी रेंगना यूँ ही
मगर हर एक लम्हा वक्त का, जिद्दी सपेरा था
गवाए ज़िन्दगी के कीमती पल, जानकर मैंने,
किसे कोसूं मैं अपने ख्वाब का तो ख़ुद लुटेरा था।
गए पत्ते कहाँ ये सब, जलीं ये टहनियां कैसे,
अरे! ये पेड़ पिछले मौसमों तक तो घनेरा था।

2 comments:

Rajeysha said...

गिरा डाला भला ये पेड़ क्यूँ तुमने मुहब्बत का
ये मेरी ज़िन्दगी के परिंदे का बसेरा था

ये पंक्‍ि‍तयां बहुत अच्‍छी लगीं।

संजय भास्‍कर said...

कम शब्दों में बहुत सुन्दर कविता।