शहर में आपके इतना फकत किरदार मेरा था
वहाँ पर अब उजाला है जहाँ पर बस अँधेरा था
वहाँ पर अब उजाला है जहाँ पर बस अँधेरा था
गिरा डाला भला ये पेड़ क्यूँ तुमने मुहब्बत का
हमारी ज़िन्दगी के ये परिंदे का बसेरा था
खुशी की नागिने तो चाहती थी रेंगना यूँ ही
मगर हर एक लम्हा वक्त का, जिद्दी सपेरा था
गवाए ज़िन्दगी के कीमती पल, जानकर मैंने,
किसे कोसूं मैं अपने ख्वाब का तो ख़ुद लुटेरा था।
गए पत्ते कहाँ ये सब, जलीं ये टहनियां कैसे,
अरे! ये पेड़ पिछले मौसमों तक तो घनेरा था।
2 comments:
गिरा डाला भला ये पेड़ क्यूँ तुमने मुहब्बत का
ये मेरी ज़िन्दगी के परिंदे का बसेरा था
ये पंक्ितयां बहुत अच्छी लगीं।
कम शब्दों में बहुत सुन्दर कविता।
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