Saturday, July 31, 2010

बहुत कमज़र्फ हाथों

बहुत कमज़र्फ हाथों में कटारें आ गयीं देखो ।
गिरावट की तरफ सारी ही म्यारें आ गयीं देखो।
पनाहों में तुम्हारी मैं ठहरता और भी लेकिन
मुझे मेरे मराहिल से पुकारें आ गयीं देखो।
मेरे अन्दर की जब से बुझदिली की सांस टूटी है
मेरी तलवार में खुद तेज़ धारें आ गयीं देखो ।
हुई क्या शाम यादें भी तेरी दिल में उतर आयीं
बसेरे को परिंदों की कतारें आ गयीं देखो।
उसूलों की लिए गठरी फकत हम हीं रहे पैदल
मुहल्ले में कई लोगों की कारें आ गयीं देखो
किसी का नाम खूं से लिख गया था एक दीवाना
मेरी दीवार में कितनी दरारें आ गयीं देखो।

5 comments:

संजय भास्‍कर said...

मनमोहक अन्दाज में बहुत सुन्दर कविता

संजय भास्‍कर said...

Kya baat hai..Dost.....Dil ko choo liya..is rachna ne

Pawan Kumar said...

एक एक शेर नगीने की तरह चमक रहा है......काफिये की बंदिशें बहुत ही मन भावन हैं....मतला माशाअल्लाह !
बहुत कमज़र्फ हाथों में कटारें आ गयीं देखो ।
गिरावट की तरफ सारी मेयारें आ गयीं देखो।
पनाहों में तुम्हारी मैं ठहरता और भी लेकिन
मुझे मेरे मराहिल से पुकारें आ गयीं देखो।
मराहिल की आवाजें.....वाह वाह चलिए मंजिल तो मिली.

हुई क्या शाम यादें भी तेरी दिल में उतर आयीं
बसेरे को परिंदों की कतारें आ गयीं देखो।
क्या बात है.....!

उसूलों की लिए गठरी फकत हम हीं रहे पैदल
मुहल्ले में कई लोगों की कारें आ गयीं देखो
ज़माने का चलन यही है...."कारें" का अद्भुत प्रयोग....!
किसी का नाम खूं से लिख गया था एक दीवाना
मेरी दीवार में कितनी दरारें आ गयीं देखो।
वाह वाह.....!जिंदाबाद !

Ankit said...

मुस्तफा भाई,
गज़लगोई तो कोई तुमसे सीखे,
हर शेर महकता है.
ग़ज़ल तो तुझसे सुन ली थी अब पढ़कर मज़ा कई गुना और बढ़ गया.

संजीव गौतम said...

बहुत कमज़र्फ हाथों में कटारें आ गयीं देखो ।
गिरावट की तरफ सारी मेयारें आ गयीं देखो।

उसूलों की लिए गठरी फकत हम हीं रहे पैदल
मुहल्ले में कई लोगों की कारें आ गयीं देखो

किसी का नाम खूं से लिख गया था एक दीवाना
मेरी दीवार में कितनी दरारें आ गयीं देखो।



बहुत खूब माहिर भाई बहुत अच्छे अशआर हुए हैं आनन्द आ गया पढ़कर।