फ़क़त छोटी सी इक अनबन हुई झगडा निकल आया.
क़बीलों का ज़रा सी बात पर शिजरा निकल आया.
ये सब बेकाम की बातें भी कितनी काम की निकलीं,
भले हो दूर का तुमसे मगर रिश्ता निकल आया.
मैं अपनी तिश्नगी को जिस जगह आया था दफनाकर ,
सुना है आजकल मैंने वहा दरया निकल आया.
जुदा होकर तू मुझसे ज़िन्दगी कैसे गुजारेगा,
अभी दो रोज़ बीते हैं तेरा चेहरा निकल आया.
दुआ फिर ज़िन्दगी को मौत के मुंह से बचा लायी,
कि बच्चा फिर गिरा गढ्ढे में औ ' जिंदा निकल आया.
मुझे लगता था दिल है आपका जज़्बात से खाली,
कनस्तर में मगर दो वक़्त का आटा निकल आया.
थे दिन बचपन के जैसे गर्मियों कि छुट्टियां मेरी,
खुला स्कूल तो स्टोर से बस्ता निकल आया.
2 comments:
सुभानाल्लाह मुस्तफा भाई.....कमाल के अशआर
ये तिरछी कलम का कमाल ही है, जो इतनी खूबसूरत ग़ज़ल बनी है. मज़ा आ गया.
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