Monday, December 5, 2011

एक लम्बा अरसा हो गया आपसे कोई गुफ्तगू नहीं हुई. दरअसल कुछ मसरूफियत है. लेकिन अब आपसे वादा करता हूँ आईंदा ऐसी गुस्ताखी नहीं होगी. दोस्तो बहुत दिनों बाद एक मनपसंद ग़ज़ल लिखी है.आइये आपको इससे रु ब रु करवाता हूँ . उम्मीद है पसंद आएगी. 
वो जो गम से, तन्हाई से हाथ मिलाया करते हैं
हम भी अपने दिल में हरदम दर्द को पाला करते हैं

वो जो वाक़िफ है पानी में आग लगाने के फन से,
हम भी यारो पत्थर को शीशे से तोड़ा करते हैं

वो जो उलझन को पल भर में सुलझा कर रख देता है
हम भी अड़ियल चट्टानों से राह निकाला करते हैं

वो जो औरों के भी दर्द को अपना दर्द समझता है
हम भी हर इक रोती आँख के आंसू पोंछा करते हैं

वो जो दहकते अंगारों पर चलने का दम भरता है
हम भी सूरज की आँखों में आँखें डाला करते हैं

वो जो दूध का ढूध और पानी का पानी कर देता है
हम भी हर इक बात को अपनी पलक से तोला करते हैं

वो जो तबस्सुम रखता है फूलों के नाज़ुक़ होटों पर
हम भी बच्चा बन रोते बच्चों को हँसाया करते हैं

वो जो अपने एहसां का एहसास नहीं होने देता
हम भी यारो नेकी कर दरया में डाला करते हैं

वो जो परेशां करता है अंधियारों को शम्मा बन कर
हम भी जुगनू बन बन कर रातों से उलझा करते हैं

वो जो भटके लोगों को उनकी मंजिल दिखलाता है
हम भी राहों में बिखरे काँटों को बीना करते हैं

वो जो अपनी बातों से सबको बस में कर लेता है
हम भी अपने फ़न से यहाँ हर दिल में बसेरा करते हैं

वो जो पत्थर की परतों से आब निकाला करता है
हम भी अंधेरों के सीनों से ज़िया निचोड़ा करते हैं

वो जो ऊँचाई को पाने की चाहत में पागल है
हम भी फलक को बाहों में भरने की सोचा करते हैं

वो जो रस्ता रोका करता है मग़रूर हवाओं का
हम भी ज़िद्दी तूफानों के बाज़ू तोड़ा करते हैं - मुस्तफा माहिर

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